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इंसान और पशु में क्या फ़र्क है

इंसान विचारशील प्राणी है और इंसान के ही दिमाग में कई सारे प्रश्न भी  आते है कि मानव  और पशु में क्या अंतर है ?

यह अक्सर कहा जाता है कि a human is a social animal यानि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है क्या यह कहना उचित होगा  कि, इंसान एक सामाजिक प्राणी है।   क्योंकि  सामाजिक जीवन तो कई प्रकार के पशु भी जीते हैं, जहां वो मिलजुलकर अपने अपने कार्यों  का निर्वाहन करते हुए , साथ चलते हुए , बात करते हुए , मस्ती करते हुए  अपने समूह को आगे बढ़ाते हैं।  लेकिन क्या मनुष्य भी केवल इतना ही करते हैं? एक संस्कृत श्लोक है जो

मनुष्य में पशुत्व से भिन्नता दर्शाने वाली बातें

आहार, निंद्रा भय मैथुनं च

सामान्य एतत पशुभि नरानाम,

धर्मो हि तेषाम अधिको विशेष

धर्में हीन पशुभि समानः ………

मनुष्य और पशु में क्या अंतर है मनुष्य कहलाने का सच्चा अधिकारी कौन है

इस संस्कृत श्लोक का मतलब यह होता है कि मनुष्य और पशु में जो समानता है वो हैं भोजन करना ,मल त्याग करना ,  सोना, अपने प्राणों के लिए भयभीत रहना और अपने वंश की वृद्धि करना ,  किन्तु जो विशेष गुण मनुष्य को पशुओं से अलग करता है वो है धर्म की रक्षा  ” धर्म का पालन” और धर्म को धारण करना ।

 

यहां पर हम थोड़ा और विस्तृत में जाकर सोचते हैं  क्योंकि लोगो ने धर्म को बहुत ही कम समझा है , कम आंका है और जिन्होंने कम आंका है;  उनकी सोच बहुत संकुचित हो जाती है।

 

 

अक्सर धर्म को ज़्यादातर लोगो द्वारा मात्र पूजा या उपासना पद्धति से जोड़कर देखा जाता है किन्तु धर्म इन सबसे भी व्यापक है।  पूजा या उपासना पद्धति धर्म का एक माध्यम मात्र है, यह धर्म का एक तनिक छोटा तथ्य मात्र ही है, धर्म तो इससे अनगिनत कदम आगे है।

सच मे तो कि धर्म तो जीवन को सही तरीके से जीने का आधार है।

जीवन जीने की राह है , जीवन का आधार है , आत्मा के उद्धार की कला और पद्धति है।

महर्षि वेद व्यास जी ने परोपकार को ही सर्वोत्तम धर्म बताया।

महात्मा बुद्धा जी ने दया और क्षमा को धर्म बताया।

स्वामी विवेकानंद जी ने दरिद्र नारायण  की  सेवा को धर्म बताया।

इसी प्रकार अनेकों महापुरुषों ने धर्म को अनेको तरह से समझाया,  किन्तु सबके विचारों  का मूल आधार परमार्थ कि सिद्धि ही था, परोपकार ही था, नर नारायण की सेवा ही था।

जीवन का कल्याण था ।

जीवन का उद्धार था ।

जीवन का तारण था और है।

अर्थात  मनुष्य होने कि पहली और अनिवार्य शर्त है कि हमें केवल अपने लिए नहीं बल्कि औरों के लिए भी जीना होगा।

 

अतः मनुष्य और पशु में सबसे बड़ा फर्क और भी है वह भी ऊपर वाले से ही संबंधित है कि इंसान विवेकशील प्राणी है , वह सोच सकता है ,समझ सकता है और उस सोच पर आगे मनन करके आगे मनुष्य की भालाई के  कार्य कर सकता है लेकिन पशु सोच नही सकता है।

यदि कोई इंसान विवेकपूर्ण, विवेकशील नही होकर,  औरों की नही सोचकर,  सिर्फ अपने लिएए ही जीता है तो वह इंसान भी पशु ही है ।

यदि आप इंसान की सोच पर कुछ ज्यादा पढ़ना चाहते हैं या आप ज्यादा जानने के इच्छुक है तो आपके लिए यह पुस्तकें मददगार साबित हो सकती है

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